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इटावा/जसवंतनगर:वर्षा ऋतु के पानी की तरह होती है निजी शिक्षण संस्थानों में धन वर्षा

 संवाददाता:मनोज कुमार (7409103606)



आ गया अभिभावकों की जेब काटने का समय किंतु जेब पर डाका डालने वाले सम्मानित हैं और शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने वाले बताए जाते हैं जो समय-समय पर अपने संस्थानों में जिला के जिलाधिकारी, जिला विद्यालय निरीक्षक, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, या बेसिक शिक्षा अधिकारी, समाज कल्याण अधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी तथा अन्य उचित पदस्थ अधिकारियों को समय-समय पर अपने स्कूली कार्यक्रमों का मुख्य अतिथि या अध्यक्ष नियुक्त कर देते हैं और यह अधिकारी बिना किसी ना नूकर के उनके विद्यालयों में जाना स्वीकार कर अपने आप में गर्व की अनुभूति करते हैं बस स्कूल संचालकों का भय समाप्त जैसे चाओ वैसे चलाओ जितना चाहो उतना उगाओ जिस तरह से चाहो उस तरह से उगाओ क्योंकि संरक्षकों और अभिभावकों की शिकायत उन्हीं अधिकारियों के पास जाएगी। जिन्होंने हमारे स्कूल के मंचों को सुशोभित किया था और उन्हें स्कूल प्रबंधन की ओर से महंगा उपहार भी दिया गया। अब अभिभावकों की शिकायत पर स्कूल के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी। यहां पब्लिक स्कूलों की ओर लेखक ध्यान आकर्षित करना उचित समझेगा- कभी-कभी सत्र जुलाई से शुरू होकर जून में माना जाता था लेकिन विद्यालय प्रबंधकों को खतरा रहता था कि अगले वर्ष बच्चा इस स्कूल में आएगा कि नहीं इसलिए उन्होंने परीक्षाएं फरवरी माह तथा मार्च के प्रथम सप्ताह में करवा कर 31 मार्च तक परीक्षा परिणाम घोषित करना शुरू कर दिया धीरे से यह नियम पूरे देश में अपनाते हुए दुहाई यह दी गई की अप्रैल में अगली कक्षाओं की किताबें दिलवाकर पाठ्यक्रम का अध्यापन कार्य शुरू कर दिया जाएगा जिसमें एक बड़ी चाल यह रहती है कि जब बच्चे ने किताबें कॉपियां खरीद ही ली तो 10000 से 12000खर्च करके छात्र अब कहीं दूसरे विद्यालय में नहीं जाएगा और विद्यालय में प्रबंधक संख्या आधार को लेकर निश्चिंत हो जाते हैं "अब सरकारी खेल शुरू होता है हर एक विद्यालय यूपी बोर्ड और एनसीईआरटी की किताबें नहीं बल्कि किसी और प्राइवेट, निजी प्रकाशन की किताबें छात्रों के लिए लगाना पसंद करता है केवल 10 पन्ने की किताब पर 100- 200 ,500 तक की कीमत अंकित होती है कुल मिलाकर एलकेजी की चार किताबें ₹5000 और 6,7,8 तक की किताबें 10 से ₹12000 तक में मिलेंगे तथा बैग, टाई, बनियाइन यह भी कुछ मुंह मांगे कीमत अभिभावकों को चुकानी पड़ती है इसके साथ ही किताबें और यह ड्रेस संबंधी सामान स्कूलों में ही या किसी पूर्व निर्धारित दुकान पर ही प्राप्त होगा जिसमें 50 से 70 फ़ीसदी कमीशन सीधे स्कूल प्रबंधकों के यहां आराम से बिना किसी परेशानी के पहुंच जाता है" दुल्हनों की तरह सजें धजे यह निजी विद्यालय किसी मॉल से कम नहीं होते हैं जहां अभिभावक अपनी जेब कटवाने में फर्क महसूस करता है किंतु मध्यम वर्गीय परिवार इस बोझ को ढोने में असहयोजिता महसूस करते हैं दूसरी ओर मालामाल हो जाने वाले विद्यालयों में आज भी कुशल अध्यापकों तथा अध्यापिकाओं की भरमार है जिन्हें 2500 से 5000 या 6000 के बीच वेतन पारिश्रमिक मिलता है वह भी 10 महीने का कुछ विद्यालय के प्रबंधक तो वेतन के मामले पर कुछ कहते हैं,कुछ करते है और नहीं भी देते हैं। और अधिकारीगण इन स्कूलों में लच्छेदार भाषण देकर बहुमूल्य लेकर चले आते हैं कभी किसी समस्या पर विचार करते आज तक उन्हें नहीं देखा होगा। दूसरी ओर सरकारी विद्यालय में छात्र तथा छात्राएं शून्य वहां कोई वरिष्ठ अधिकारी कभी किसी कार्यक्रम में जाते हुए भी नहीं देखा गया होगा मेरा मानना है कि शिक्षा अब गरीबों को बर्दाश्त नहीं करेगी यहां गरीबी नहीं गरीब ही खत्म हो गया।




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