संवाददाता: एम.एस वर्मा, इटावा ब्यूरो चीफ, सोशल मीडिया प्रभारी, 6397329270
जसवंत नगर रियासत काल से अब तक इतनी प्रगति हुई, कि डाकिया या डिलीवरी बॉय नहीं ढूंढ सकता जसवंत नगर के किसी वासिंदे का घर।
जसवंत नगर रियासत का यह समृद्ध नगर अंग्रेजी हुकूमत में टाउन एरिया और स्वतंत्र भारत के दौरान 1978 में नगर पालिका बना, क्या अपनी विकास यात्रा के दौरान कोई नया मिथक स्थापित कर सका?
जसवंत नगर। व्यापारिक तथा सांस्कृतिक धरोहरों के लिए प्रसिद्ध जसवंत नगर 1925 के आसपास अंग्रेजी हुकूमत के दौरान टाउन एरिया की श्रेणी में आ गया और आजाद भारत के दौरान 1978 में यह नगर, नगर पालिका दर्जा प्राप्त हुआ। श्री राम किशोर गुप्त टाउन एरिया जसवंत नगर के अन्तिम अध्यक्ष रहे। लगभग 10 वर्ष तक सुपर सीट रहने के पश्चात अर्थात उप जिलाधिकारी के अधीन रहने के बाद 1988 में पहला चुनाव सम्पन्न हुआ और अमरनाथ गुप्ता नगर पालिका के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। किंतु कुछ समय बादअर्थात कार्यकाल की बीच अवधि में चेयरमैन का दायित्व श्री रतन सेन जैन ने संभाल कर उस कालावधि को पूर्ण किया।
वर्ष 2000 में श्री श्री पति यादव पालिका के अध्यक्ष बने ,और 2005 में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मोहर श्री, पत्नी श्रीपति यादव ने नगर पालिका अध्यक्ष बनकर अपना कार्यकाल पूरा किया। 2012 में श्रीमती विमलेश यादव ने नगर पालिका के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और अपना कार्यकाल पूरा किया । तत्पश्चात 2017 में सुनील कुमार जौली नगर पालिका जसवंत नगर के अध्यक्ष निर्वाचित हुए और 2023 में नगर की सम्मानित जनता ने नगर पालिका के अध्यक्ष के रुप श्री सत्यनारायण शंखवार को निर्वाचित किया। आशा है कि वह भी इस कार्यकाल को पूरा करते हुए स्थानीय सुशासन के लिए जान जाएंगे। उनके साथ 25 वार्ड सभासद भी बोर्ड की निर्धारित पीठिकाओं को सुशोभित कर रहे हैं जिन्हें जनता ने प्रत्येक वार्ड अर्थात् 25 वार्डों से अपने अमूल्य मत द्वारा जिता कर बोर्ड में पहुंचाया है। जो सुशासन में भागीदार बनेंगे। पूर्व में भी इसी तरह नगरपालिका अध्यक्ष और प्रत्येक वार्ड से सम्मानित सभासद निर्वाचित हुए और बोर्ड में उन्होंने सम्मानित स्थान प्राप्त किया। यह क्रम आगे आने वाले चुनाव में भी जारी रहेगा।
नगर का नागरिक और एक मतदाता होने के नाते मेरा दायित्व है कि स्थानीय निकाय तथा प्रशासन को मूलभूत समस्याओं से परिचित कराया जाय। क्योंकि इस समस्या से नगर का कोई भी नागरिक अछूता नहीं है। टाउन एरिया तथा नगर पालिका के लगभग 100 वर्षों के इतिहास में नगर पालिका को नहीं पता कि कौन सा मोहल्ला कहां है? उसमें गली नंबर कौन सी है ? मकान नंबर और मकान के स्वामी कौन है? नई बस्तियों के नाम, गली नम्बर ,भवन स्वामी का ब्यौरा दे पाना, बता पाना या खोज पाना किसी के बस की बात नहीं?
शहरों की तंग बस्तियों में लोग एक दूसरे से कम परिचित होते हैं। वार्ड नंबर, गली नंबर , मकान नंबर , ब्लॉक नम्बर इसलिए ही अंकित कराया जाता है, ताकि कोई भी व्यक्ति यदि बाहर से आता है, पोस्टमैन हमारी डाक पहुंचना चाहता है या प्रशासन किसी तरीके की समस्या के समाधान के लिए यदि संबंधित व्यक्ति तक पहुंचना चाहे तो आराम से पहुंच जाता है। किंतु जसवंत नगर क्या इस श्रेणी में अब तक नहीं पहुंच पाया ?कि इस जानकारी को अंकित कराने के लिए पूर्व या वर्तमान नगरपालिका बोर्ड इस सम्बंध में विचार करता?
डाकिया और बाहर से आने वाले, अथवा डिलीवरी बॉय घंटों नगर में इस गली से उस गली में, इस चौराहे से उस चौराहे पर घूमते रहते हैं, किंतु वह उस स्थान पर नहीं पहुंच पाते हैं जिस स्थान पर उन्हें पहुंचना है । कोई व्यक्ति ठीक से पता भी नहीं बता पाता। जिसका साफ मतलब है कि शहर में उचित पते का अंकित न होना। किंतु इस ओर किसी सम्मानित सभासद या अध्यक्ष का कोई ध्यान नहीं। जबकि यह ज़िम्मेदारी किसी और की नहीं बल्कि नगरपालिका की है। हां पिछले कार्यकाल से सभासद बंधुओं के नाम बोर्ड जरुर लग जाते और सभासद बंधु खुश हो जाते हैं।
नगर में,मैं 1983 से रह रहा हूं यदि अपने मोहल्ले से बाहर जाऊं तो अन्य जगह पर खड़े होकर मैं ठीक से नहीं बता सकता कि अमुक स्थान कौन सा है?किस मोहल्ले में आता है? और यह गली नम्बर कौन सी है?
जब मेरी स्थिति यह है तो अन्य लोगों की भी तो यही स्थिति होगी। किंतु नगर का दुर्भाग्य है कि अब तक इस पर कोई विचार नहीं किया गया।
यदि यह अंकित हो जाता तो सैकड़ों की संख्या में भूमि संबंधी विवादों का आम जनों को सामना नहीं करना पड़ता। और लोग बिना पूछे उस पते पर पहुंच जाते जहां उन्हें पहुंचना है।
हालांकि नगर पालिका के जन कल्याणकारी कार्यों में
खेल कूद के लिए पार्क जिसका नगर में पूरी तरह अब तक अभाव है। स्वच्छ पेयजल आपूर्ति, नाली सफाई, कूड़ा निस्तारण, आदि पर आए दिन हाय तौबा बनी ही रहती है।
जन्म/मृत्यु प्रमाणपत्र , विरासत दर्ज होना, जल कर ग्रह कर आदि के निस्तारण हेतु एकल खिड़की से जन समस्या का निदान किया जा सकता है किंतु उस पर भी हाय तौब्बा।
अन्य कल्याण कारी कार्यों में नगरीय गरीब छात्रों के लिए लाइब्रेरी, ई लाइब्रेरी, विकलांग पुनर्वास, वृद्धा एवम् निशक्त जनों , तथा पति की अकाल मृत्यु उपरांत परेशान विधवाओं , यतीम अनाथों के पुनर्वास के सम्बंध में नगर की नगर पालिका से उम्मीद करना आसमान से तारे तोड़ने के समान है ।
अब हम रियासती दौर को जरा याद करते हैं । आज तक जितने करोड़ का विकास दिखाया जाता है उसका आकलन करो, उस सब की कीमत अकेले सब्जी मंडी में बने मंदिर और तालाब की लागत के बराबर होगी। जिसे आम जनमानस के नहाने हेतु तथा कुछ जानवरों के पानी पीने हेतु बनाया गया । जहां आज भी पुरुष तथा महिलाओं के स्नानघर के भग्नावशेष विद्यमान हैं। उस समय नगर की मंडी का व्यापार अंतरराष्ट्रीय स्तर का था । इस मंडी से दलहन, तिलहन, बाजारा,कपास आदि की खरीद कर लाहौर ,कराची, बांग्लादेश के ढाका आदि मंडियों में व्यापारियों को भेजा जाता था। यहां का शुद्ध घी देश की नामचीन मंडियों में अपनी हनक रखता था। गुड़ तथा चमड़ा भारत की विभिन्न मंडियों में निर्यात होता था । और यहां की बनी मंडी के चौतरफा दरवाजे तथा उस पर लगे लकड़ी के फाटक आज के हिसाब से करोड़ों की लागत के होंगे।
क्योंकि आज तो एक लाख के समान का 8-10 लाख तक बताकर लोग नेता गिरी चमकाने में लगे हैं। नगर का बिलैया मठ यदि 1857के इतिहास को अपने आगोस में समेट कर रो रहा है, तो जैन ट्रस्ट का मगन कुंज दुखी तथा अपनी बदहाली पर विलाप कर रहा है। वही पाताल स्रोत वाला पक्का तालाब अपनी स्वच्छता के लिए नहीं, बल्कि गंदगी और बदहाली को अपने उदर में रखकर बदहाली दर्शा रहा है। रियासत काल में स्थापित हिंदू विद्यालय इंटर कॉलेज अपनी विकास गाथा का परचम लहरा रहा है तो दूसरी ओर रामलीला जिसे उसके संरक्षकों के द्वारा नया लुक देकर सजीवता प्रदान की जा रही है । यह मैदानी रामलीला 1855 में पहली बार लगी थी इसके बाद 1857 में गदर के कारण 2 वर्ष तक यह कार्यक्रम रद्द रहा और 1859 से निर्वाध रामलीला का मैदानी मंचन किया जा रहा है । रियासत कालीन कचहरी जिसे आज गोदाम के नाम से जाना जाता है आज भी नगर का मुख्य स्थान होने का गौरव रखता है । कभी नगर का समृद्ध हथकरघा व्यवसाय जो हजारों लोगों की रोजी-रोटी का साधन था और हाथ की बनी गजी, गाड़े, आंगौछे, लुंगी अपनी पहचान रखते थे काम के विस्तार ने तथा अधिक उत्पादन के लिए पावर लूम लगे किंतु बाद शासन की तथा स्थानीय स्वशासन की उदासीनता के कारण यह व्यवसाय पूरी तरह उजड़ गया और हजारों लोग बेरोजगार हो गए तथा पॉवर लूम कबाड़े में किलो के भाव बिक गई। और बुनाई के कुशल कारीगर हथ ठेला तथा रिक्शा चलाकर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं।
आज भी नगर रोजगार सृजन से कोसों दूर है। नगर अब विकास की कहानी नहीं अपराध, बेरोजगारी, तथा शासन, प्रशासन, एवम् स्थानीय स्वशासन की उदासीनता की कहानी के नए अध्याय जोड़ने की ओर अग्रसर है।
नोट - हो सकता है की लेख में कुछेक तारीखें भिन्नता रखती हों, क्योंकि यह दस्तावेजी आधार पर नहीं बल्कि साक्षात्कार आधारित है। लेख में तिथि विसंगति क्षमा योग्य है।
लेखक: प्रोफेसर डॉ धर्मेंद्र कुमार,6398425895
सामाजिक चिंतक