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भारत में कंप्यूटर की उत्पत्ति क्यों और कैसे हुई जानिए।

संबाददाता : एम.एस. वर्मा, मनोज 


“दूसरों से मांगी हुई तकनीक से देश महान नहीं बनते”

- विजय भाटकर, भारत के प्रथम सुपरकंप्यूटर प्रणेता

सुपर कंप्यूटर बनाने की दौड़ में शायद भारत शामिल नहीं होता, अगर अमरीका इसे एक तकनीकी कमजोर देश होने का अहसास न कराती। मुझे अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन का एक पत्र अमरीका के ही सार्वजनिक आर्काइव में मिला। 25 मार्च 1987 को भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उन्होंने लिखा,

“आपने हमसे सुपरकंप्यूटर ख़रीदने की इच्छा ज़ाहिर की थी। पिछले वर्ष दिसंबर में नयी दिल्ली में हमारे अधिकारियों ने यह कहा था कि कुछ ज़रूरी सुरक्षा शर्तों के साथ भारत को सुपरकंप्यूटर निर्यात किया जा सकता है। हमने उन शर्तों पर ग़ौर किया और मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि हम सुपरकंप्यूटर निर्यात करने को तैयार हैं”

चिट्ठी तो प्रेम भरी ही लगती है, लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि शर्तें आखिर थी क्या?

उन दिनों विदेश राज्य मंत्री रहे नटवर सिंह अपने संस्मरण में लिखते हैं कि अमरीका इस बात से नाराज़ थी कि भारत ने सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान अतिक्रमण का विरोध नहीं किया। रोनाल्ड रीगन भारत को ऐसी कोई भी मदद नहीं करना चाहते थे, जिससे भारत एक बड़ी परमाणु शक्ति बनने की तरफ़ बढ़ सके। चूँकि सुपरकंप्यूटर का उपयोग ऐसे शोध में किया जा सकता था, अमरीका इसे निर्यात नहीं करना चाहती थी। 

इससे पूर्व राजीव गांधी स्वयं 1985 में इन मसलों पर चर्चा के लिए अमरीका गए थे। कई दौर की बातचीत के बाद यह तय हुआ कि सुपरकंप्यूटर तभी निर्यात किया जाएगा, अगर भारत मात्र मौसम विभाग के लिए उपयोग करे। जहाँ क्रे कंपनी की XMP-24 सर्वश्रेष्ठ सुपरकंप्यूटर थी, भारत को इसका पुराना, धीमा और सीमित क्षमताओं वाला मॉडल XMP-14 देने की पेशकश की गयी।

उन्हीं दिनों कंप्यूटर वैज्ञानिक विजय भाटकर अपनी अच्छी ख़ासी सरकारी नौकरी त्याग कर टाटा कंपनी से जुड़ने जा रहे थे। उनको इलेक्ट्रॉनिक विभाग के सचिव नांबियार ने फ़ोन किया कि राजीव गांधी आपसे सुपरकंप्यूटर की चर्चा करना चाहते हैं। 

आगे का संस्मरण स्वयं भाटकर लिखते हैं कि राजीव गांधी ने उनसे तीन प्रश्न किए।

“क्या आप सुपरकंप्यूटर बना सकते हैं?”, राजीव गांधी ने पूछा

“मैंने क्रे सुपरकंप्यूटर की सिर्फ़ तस्वीर ही देखी है, किंतु सिद्धांततः हाँ। मैं इसका विज्ञान जानता हूँ।”, भाटकर ने उत्तर दिया

“यह कब तक बन सकता है?”

“मुझे बताया गया कि अमरीका से सुपरकंप्यूटर लाने में तीन वर्ष लगेंगे। अगर मुझे इतना ही समय दिया जाए, तो यह बन सकता है”

“इसमें कितना खर्च आएगा?”

“यह तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अमरीका से खरीद और आयात शुल्क के खर्च से कम ही लगेंगे”

अमरीकी करारनामा रोक दिया गया। नवंबर 1987 में पुणे विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार के निकट ही एक संस्थान की स्थापना हुई- प्रगत संगणक विकास केंद्र (C-DAC)। उसके चिह्न पर लिखा गया- “ज्ञानादेव तु कैवल्यम”। यह आदि शंकराचार्य का कथन है जिसका अर्थ है ज्ञान से ही ब्रह्म की प्राप्ति संभव है।

विजय भाटकर ने ताबड़तोड़ विशेषज्ञों को फ़ोन घुमाने शुरू किए, जिनमें से कई तो निजी कंपनियों में कार्यरत थे। जब उन्हें भारत के पहले सुपरकंप्यूटर बनाने की बात कही गयी, वे अपनी नौकरियाँ छोड़ कर तीन वर्ष के अस्थायी कॉन्ट्रैक्ट पर आ गए। आइआइटी और अन्य संस्थानों से नवयुवा इंजीनियर बहाल किए गए।

उन दिनों वहाँ कार्यरत सार्थक कुलकर्णी लिखते हैं- “भाटकर सर की ख़ासियत थी कि उनके कमरे में कभी भी, कोई भी कर्मी बिना पूछे घुस सकता था। एक जूनियर इंजीनियर भी अगर उन्हें टोकता कि आप फलाँ चीज ग़लत कर रहे हैं, वह सौम्यता से पूछते- तुम्हारा सुझाव क्या है?…पहले छह महीने बीस कर्मियों को कुछ काग़ज़ी कारणों से पूरा वेतन तक नहीं मिला, फिर भी लोग दिन-रात लगे पड़े थे कि सुपरकंप्यूटर बनाना है”

आखिर 1990 में वादे के मुताबिक़ तीन वर्ष के अंदर ही सुपरकंप्यूटर का प्रोटोटाइप तैयार हो गया। जब यह बात ख़बरों में आयी, तो इसकी वैधता पर प्रश्न उठाए गए। पश्चिमी मीडिया यह कह रही थी कि ये एक साधारण मशीन होगी, सुपरकंप्यूटर नहीं। 

हाथ कंगन को आरसी क्या? उसी वर्ष ज़्यूरिख़ में सुपरकंप्यूटर प्रोटोटाइप प्रतियोगिता थी। भारत ने इसमें भाग ले लिया। इसके पुर्जे रात को दो बजे ज़्यूरिख़ पहुँचे, और पूरी रात जग कर नौ घंटे में इसे असेंबल किया गया। वहाँ भारत के अलावा अमरीका, जर्मनी, सोवियत रूस, जापान और ब्रिटिश-फ्रेंच सहयोग से बने सुपरकंप्यूटर मैदान में थे। जापान का सुपरकंप्यूटर तकनीकी कारणों से चल ही नहीं सका। भारत का सुपरकंप्यूटर भी पहले प्रयास में चल नहीं पाया। इंजीनियरों ने इसकी मरम्मत की, तो दूसरे प्रयास में यह चल पड़ा। और क्या चला! 

भारत जर्मनी, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस को पछाड़ते हुए दूसरे स्थान पर पहुँचा। इससे तेज़ मात्र अमरीकी कंप्यूटर था। कुलकर्णी लिखते हैं कि एक अमरीकी अख़बार में छपा,

“Denied supercomputer, angry India does it”

(सुपरकंप्यूटर मना किये जाने पर क्रोधित भारत ने कर दिखाया)

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